अब और अखबारों को पैनल पर नहीं लेना चाहती डीएवीपी, दिये संकेत

नियम कायदों के बीच अब आवाज घुटने लगी है। आवाज भी कोई साधारण नहीं बल्कि जनता के हक की आवाज उठाने वाले रीजनल मीडिया की आवाज। इसके जिम्मेदार हम स्वयं भी कहीं ना कहीं उतने ही हैं जितनी की सरकार। अखबार चलाने की हमारी सोच जब डीएवीपी पर निर्भर हो गई तो उसी के अनुरूप खबरें भी हो गईं, जिसकी वजह से अखबार जनता से दूर हो गए।

यही वजह है कि डीएवीपी के अधिकारी खुदा बन बैठे और जी जान से अखबार निकालने वाले प्रकाशको की बेइज्जती करने में कोई कसर नहीं रखी। भ्रष्टाचार की सीमा पार हो गई। सरकार ने डीएवीपी एड पॉलिसी 2016 के अंतर्गत पारदर्शिता लाने के बहाने सभी अखबारों को बाध्य किया कि वो अपने अखबारों को डीएवीपी द्वारा निर्धारित पीआईबी सेंटर्स में हर माह जमा करें। फिर भी नियम का पालन करने वाले ज्यादातर अखबारों को 15 अगस्त 2017 को विज्ञापन नहीं दिया गया।

दरअसल, सरकार ने मन बना लिया है कि डीएवीपी के पैनल पर अब उसके कुछ पसन्दीदा अखबार ही रहेंगे। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि अगस्त 2016 और फरवरी 2017 में जिन अखबारों ने डीएवीपी पैनल करवाने के लिये आवेदन किया था उनके आवेदनो पर विचार करने के लिये अभी तक पीएसी का गठन भी नहीं किया गया है। इतना ही नहीं इस अगस्त 2017 के लिये नये आवेदन जमा करने के लिये डीएवीपी ने ई-फाइलिंग की प्रक्रिया शुरू ही नहीं की। डीएवीपी अधिकारियों से इस बात पर स्पष्टीकरण मांगने पर अब विज्ञापन नीति के उस क्लॉज का हवाला मिल रहा है जिसमें यह लिखा है कि अखबारों को डीएवीपी पैनल पर लेना सरकार की बाध्यता नहीं सुविधा और इच्छा पर निर्भर है। यदि सरकार को लगता है कि पैनल पर जितने अखबार हैं वो सरकार की नीति का प्रचार प्रसार करने के लिये काफी हैं तो वह नये आवेदन मंगाने के लिये बाध्य नहीं है। 

इन हालातो को देखते हुए अब स्वावलम्बन का वक्त आ गया है। हमें किसी की खैरात नहीं चाहिये। डीएवीपी में नये नियमों के मुताबिक सभी प्रक्रिया पूरी करने के बाद भी ज्यादातर अखबारों को विज्ञापन नहीं मिल रहे हैं। ऐसे में डीएवीपी करवाने का कोई औचित्य ही नहीं है। रीजनल मीडिया को अपनी असली ताकत की झलक अब सरकार को दिखानी चाहिये। ये तभी हो सकता है जब हम अपने अखबार को जन हित से जोड़ दें और हमारी ताकत हमारे पाठक बनें। इसके लिये हमें उनकी खबरों को प्रमुखता देनी होगी। हमारी ताकत का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि “पूरा सच” नाम का एक क्षेत्रीय अखबार अन्याय के विरूद्ध खड़ा हो जाता है तो गुरमीत जैसे ताकतवर लोगो को हिला कर रख देता है। ये ताकत किसी बड़े अखबार में नहीं थी जो गुरमीत के खिलाफ खड़ा हो सकता था। इसके साथ एक बात और दुख के साथ कहने पड़ रही है कि सच्चाई के लिये पूरा सच के प्रकाशक को अपनी जान देनी पड़ी। अगर सभी क्षेत्रीय अखबार एक साथ इस खबर को छापते तो उन्हें इंसाफ जल्दी मिल पाता या शायद उनकी जान बच पाती। कहने का अर्थ है कि हमें खबर छापनें भी एक जुटता दिखानी होगी। अगर एक अखबार किसी सही मुद्दे को उठा रहा है तो एक साथ मिलकर 10 अखबार उसी खबर को छाप दें तो हमारी ताकत के आगे खड़ा होने की किसी में हस्ती नहीं होगी।

इसलिये लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन प्रोजेक्ट शक्ति से जुड़ने का आवाह्न करती है। प्रोजेक्ट शक्ति ऐसी ही अन्यायपूर्ण ताकतों से लड़ने और अपनी आर्थिक आजादी सुनिश्चित करने का एक माध्यम है।