अगस्त 2010 में पैनलबद्ध होने के लिए आवेदित अखबारों के चयन पर विचार करने के लिए बनी पीएसी की बैठक से पूर्व ही कुछ अखबारों को पैनलबद्ध कर लिया गया है। डीएवीपी में अगस्त 2010 में आवेदित अखबारों को पैनलबद्ध करने के लिए पीएसी की इस बैठक को नवंबर 2010 में होना चाहिए था, लेकिन बिना कारण बताए इस बैठक को मई तक घसीटा गया। जबकि अंदरखाने अगस्त 2010 में आवेदित कुछ अखबारों को पीएसी बैठक से पहले ही पैनलबद्ध कर लिया गया।
प्रकाशकों के साथ इससे बड़ा धोखा और क्या हो सकता है कि पहले तो उनसे फरवरी 2011 में पुनः आवेदन का मौका छीना गया और दूसरे वो भ्रम की स्थिति में अभी भी इंतजार में हैं कि जब पीएसी की बैठक होगी तो पूरी पारदर्शिता से अखबारों के पैनलबद्ध होने की प्रक्रिया अपनाई जाएगी।
यद्यपि महानिदेशक डीएवीपी को विज्ञापन नीति 2007 के अनुसार अधिकार है कि वो पीएसी की बैठक से पूर्व अपने विवेकाधिकार से अखबारों को पैनलबद्ध कर सकता है। परंतु वह उन्ही अखबारों को पैनलबद्ध कर सकता है जिन अखबारों ने पैनलबद्ध होने के लिए डीएवीपी द्वारा निर्धारित सभी मानदण्डों और प्रक्रियाओं को पूरा किया हो। परंतु अगस्त 2010 में आवेदित पीएसी की बैठक से पूर्व जिन अखबारों को पैनलबद्ध किया गया है उनमें कुछ ऐसे अखबार भी शामिल हैं जिन्होंने इन मानदण्डों को पूरा नहीं किया है।
इन अखबारों को पैनलबद्ध करने के लिए महानिदेशक डीएवीपी ने अपने विवेकाधिकार का बेजा इस्तेमाल किया व लघु एवम क्षेत्रिय अखबारों के साथ दोहरा रवैया अपनाया। बड़ा सवाल यह है कि केवल इन्ही अखबारों को पैनलबद्ध करने में इतनी जल्दी क्यों दिखाई गई, यदि इसके पीछे यह कारण था कि पीएसी की बैठक में देरी हो रही थी तब क्यों नहीं सभी अखबारों पर विचार किया गया।
डीएवीपी की मनमानी का आलम यह है कि कोई प्रकाशक उनसे सवाल नहीं कर सकता। हिन्दुस्तान के संविधान के मुताबिक एक बार नाइंसाफी होने पर न्याय पाने के लिए न्याय ना मिलने तक अपील करने का अधिकार है, परंतु डीएवीपी में हुए अन्याय को प्रकाशक अंतिम फैसला मानने को बाध्य है।
अगस्त 2010 में देश के दूर दराज इलाकों से आकर पैनलबद्ध होने के लिए प्रकाशक ईमानदारी से कतार लगाए खड़े रह गए और कतार तोड़ कर कुछ अखबारों को पैनलबद्ध कर लिया गया।
डीएवीपी बार बार यह दावा करता है कि वह पारदर्शिता के लिए प्रतिबद्ध है, यदि किसी प्रकाशक को डीएवीपी से कोई समस्या है तो वो सीधे डीजी और एडीजी से बात कर सकता है। जबकि असलियत यह है कि एक बार किसी अखबार के रिजेक्ट होने पर प्रकाशक अपने पक्ष में लाख तर्क रखे, डीएवीपी का एक ही जवाब होता है अब कुछ नहीं हो सकता अगली बार आवेदन करें। अंत तक डीएवीपी इस ’गलत रिजेक्शन’ के लिए खुद को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं होता, और ना ही उन पर पुर्नविचार करता है। कई प्रकाशकों ने ‘लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन’ पास डीएवीपी द्वारा की गई मनमानियों के खिलाफ खबरें भेंजी हैं।
ऐसे ही एक प्रकाशक ने बताया कि उनके अखबार को यह कहते हुए पैनलबद्ध नहीं किया गया कि उन्होने अपने अखबार पर आरएनआई संख्या गलत लिखी है। इस संबंध में प्रकाशक ने महानिदेशक डीएवीपी से बात की लेकिन उसका कोई हल नही निकला। जब प्रकाशक ने सूचना के अधिकार अधिनियम के माध्यम से पूछा कि डीएवीपी किस आरएनआई संख्या को सही मानता है तब उत्तर मिला कि जो आरएनआई द्वारा जारी प्रमाणपत्र पर अंकित हो, तब प्रकाशक पुनः आरटीआई के जवाब और आरएनआई प्रमाणपत्र के साथ महानिदेशक डीएवीपी से मिला। प्रकाशक ने अखबार पर वही आरएनआई संख्या मुद्रित की थी जो आरएनआई प्रमाणपत्र पर अंकित थी। महानिदेशक डीएवीपी ने काफी हिलहुज्जत के बावजूद भी इस समस्या का एक ही समाधान बताया कि ‘अगली बार आवेदन करें’।
हमारे देश में सरकारी विभाग किसी काम को सुचारू करने के लिए काम नहीं करते बल्कि ऐसे गड्ढे बन जाते हैं जहां सब कुछ अटक जाए। डीएवीपी भी इसका अपवाद नहीं है।
दरअसल प्रकाशकों की समस्या से कोई जुड़ना नहीं चाहता। सरकार को भी केवल अपनी नीति के प्रचार प्रसार से मतलब है जिसके लिए वो अखबारों का प्रयोग तो करती है परंतु उसके उत्थान के लिए कुछ नहीं करना चाहती।
अखबारों के पैनलबद्ध ना होने की पीड़ा प्रकाशक की है, प्रकाशक को हर हाल में अखबार चलाना है। उसके लिए उसे डीएवीपी की ओर देखना पड़ता है। उसकी आशा टूटने से ना तो डीएवीपी को फर्क पड़ता है और ना सरकार को कोई दर्द होता है। ये प्रकाशक की अपनी लड़ाई है कि वो जनता की आवाज बने रहने के लिए कब तक संघर्ष कर सकता है।
लेखक श्री सुभाष सिंह लीड इंडिया दैनिक, इनसाइड स्टोरी पाक्षिक और सेंसेक्स टाइम बिजनेस पाक्षिक के प्रकाशक हैं एवं लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। श्री सुभाष सिंह से subhash_singh27@yahoo.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।
नोट: हमारा विरोध किसी भी प्रकाशक अथवा अखबार के साथ नहीं है। हमारा विरोध डीएवीपी की गलत नीतियों और सरकारी उदासीनता के साथ है। पीएसी की बैठक से पूर्व पैनलबद्ध किए गए समाचारपत्रों की सूची देना खबर के तथ्यों के लिए अनिवार्य है। लीपा सभी प्रकाशकों को एक समान देखती है, एवं उनके हितों के लिए भी उतनी ही तत्पर है।