लीपा देगी डीएवीपी को लीगल नोटिस

सरकार की जनहित और जनजागरण की नीतियों के प्रसार में मुख्य भूमिका निभाने वाली नोडल एजेंसी DAVP की वर्तमान कार्यप्रणाली उसकी भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठा रही है. आखिर डीएवीपी के होने का औचित्य क्या है? क्या उसका गठन प्रकाशकों का दोहन करने के लिए हुआ है या मात्र एक मध्यस्त के रूप में हुआ है. डीएवीपी में व्याप्त भष्टाचार कोई नयी बात नहीं है. मुख्यत: डीएवीपी का काम सरकार

की नीतियों की प्रसार व्यवस्था को सुनिश्चित करना है. जिसके लिए डीएवीपी पूरे भारत से समाचार पत्र/पत्रिकाओ को कुछ नियमो के अंतर्गत सूचीबद्ध करती है. डीएवीपी का काम मात्र इतना था की उसे सरकारी नीतियों और विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओ के बीच कड़ी की भूमिका निभानी थी. लेकिन वर्त्तमान में आते आते डीएवीपी ने अपनी मध्यस्थ की भूमिका को भूलते हुए मनमानी शुरू कर दी. डीएवीपी के इस मनमाने रवैये से सबसे ज्यादा प्रकाशको को परेशानी का सामना करना पड़ता है. इम्पैनलमेंट के लिए प्रकाशक पूरी दौडधूप करता है लेकिन डीएवीपी (के कुचक्र) की दुर्व्यवस्था का शिकार हो जाता है. इम्पैनलमेंट की आड़ में डीएवीपी  मनमानी, भ्रष्टाचार और अनियमितता की सारी हदे पार कर चुकी है. 

इम्पैनलमेंट के लिए डीएवीपी वर्ष में 2 बार आवेदन मंगवाती है. पहला फरवरी में और दूसरा अगस्त में. डीएवीपी की विज्ञापन नीति 2007 में स्पष्ट लिखा है की फरवरी में आवेदित अखबारों पर मई तक विचार किया जाएगा और 1 जुलाई से इम्पैनल्ड अखबारों का अनुबंध शुरू कर दिया जाएगा. ऐसे ही अगस्त में आवेदित समाचार पत्र/पत्रिकाओ पर नवम्बर तक विचार कर लिया जाएगा और उनका अनुबंध अगले वर्ष की 1 जनवरी से शुरू हो जाएगा. लेकिन डीएवीपी अपने इस नियम की सबसे ज्यादा धज्जियाँ उड़ाती है. डीएवीपी ने न सिर्फ विज्ञापन निति 2007 को अपने मनमाने ढंग से तोडा मरोड़ा बल्कि उसका जमकर उल्लंघन किया. डीएवीपी अपने मनमाने नियमो को लागू कर प्रकाशकों को भ्रमित करती रही है. हर बार आवेदन के बाद पीएसी की बैठक में निश्चित समय से अधिक देरी की जाती है. अगस्त 2011 में आवेदित अखबारों की सूची 3 फरवरी 2012 को जारी की गयी. जबकि उन इम्पैनल्ड अखबारों का अनुबंध 1 जनवरी 2012 से शुरु हो जाना चाहिए था. 

स्थिति यह है की विज्ञापन नीति 2007 में निश्चित नियमो का पालन करने के बावजूद भी प्रकाशक यह सुनिश्चित नहीं कर सकता की उसके द्वारा जमा किये सभी दस्तावेज़ पूरे माने जाएँगे अथवा नहीं. विज्ञापन नीति 2007 में DAVP आवेदन के लिए कुछ मानदंड स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं. लेकिन डीएवीपी हर अगले आवेदन पर कुछ नए प्रमाणपत्रो की मांग कर देती है. इतना ही नहीं अगस्त 2011 में एक गैरसरकारी सगठन की सदस्यता के प्रमाणपत्र की मांग करके DAVP  ने असंवैधानिकता और तानाशही का परिचय दिया. लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन के विरोध स्वरुप उन्हें इस प्रमाणपत्र की मांग को हटाना पड़ा था. लेकिन अब फिर फॉर्म में जोड़ दिया गया. दरअसल आवेदन प्रक्रिया के दौरान डीएवीपी का ध्यान पारदर्शिता पर नहीं बल्कि इस बात पर ज्यादा रहता है की किस प्रकार समाचार पत्र पत्रिकाओ की अधिक से अधिक छटनी की जा सके. 

अब वक्त आ गया है की डीएवीपी में इम्पैन्लमेंट के लिए होने वाली आवेदन प्रक्रिया की खामियों का पुनरअवलोकन किया जाए ताकि डीएवीपी  में बैठे कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और दलालों पर नकेल कसी जा सके. उसके लिए जानना जरुरी है की डीएवीपी में बैठे कुछ अधिकारी और दलाल डीएवीपी की विज्ञापन नीति 2007 से किस तरह खेल रहे हैं. विज्ञापन नीति 2007 के अनुच्छेद 2 में लिखा है की पैनल द्वारा उन्ही समाचार पत्र/पत्रिकाओ को शामिल किया जाएगा जिन्हें देश के विभिन्न भागो में विभिन्न वर्गों द्वारा पढ़ा जाता है. लेकिन सर्वविदित है की बहुत से समाचार पत्र/पत्रिकाए है जो इस मानदंड को पूरा करने के बाद भी सूचिबद्ध नहीं हुए. 

विज्ञापन नीति 2007 के अनुच्छेद 6 में स्पष्ट लिखा है की विभिन्न श्रेणियों के समाचारपत्र/पत्रिकाओ को विज्ञापन देने में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए पैनल सलाहकार समिति लघु एवं मध्यम समाचारपत्र/ पत्रिकाए, भाषाई, और पिछड़े व् सुदूरवर्ती इलाको में चल रहे अखबारों को प्राथमिकता के आधार पर सूचीबद्ध करने का ध्यान रखेगी. लेकिन इस मानदंड को पूरा करने वाले कई अख़बार पैनलबद्ध नहीं हो पाते जबकि दूसरे अखबार पैनलबद्ध हो जाते हैं. 

विज्ञापन नीति 2007 का अनुच्छेद 9 डी. जी. के विवेकाधिकार की बात करता है. इसके अनुसार डी. जी. यदि चाहे तो अपने विवेकाधिकार से अखबारों को अस्थाई रूप से पैनलबद्ध कर सकता है बशर्ते वह अखबार डीएवीपी के निर्धारित नियम पूरे करता हो. उस अखबार को स्थाई रूप से पैनलबद्ध होने के लिए पीएसी के बैठक में रखा जाता है. यदि इस प्रक्रिया को सही माना जाए तब कुछ अखबारों के बजाये सभी अखबारों को पैनलबद्ध क्यों नहीं किया जा सकता जो नियम व शर्ते पूरी करते हो. ऐसा होगा तो डीएवीपी में बैठे कुछ भ्रष्ट अधिकारियो और दलालों का धंधा चौपट हो जाएगा. 

इन कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओ के बाद प्रश्न उठता है की डीएवीपी साल में दो बार आवेदन मंगवाता है इस दौरान प्रकाशक की फाइल पर हो रहे काम की जानकारी प्रकाशक को नहीं दी जाती. महत्वपूर्ण ये भी है की आखिर सब प्रक्रिया पूरी करने के बावजूद किसी अखबार को कट पेस्ट, पूअर प्रिंटिंग या प्रिंट साइज छोटा बताकर अखबार को पैनाल्बद्ध नहीं किया जाता है. यदि डीएवीपी वाकई इस प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना चाहती तो इन सभी विषयों के लिए प्रकाशकों से एक अंडरटेकिंग लेती कि यदि इम्पैनलमेंट के बाद अगर कोई अखबार डीएवीपी के मापदंड के अनुसार नहीं छपेगा तो उसका इम्पैनलमेंट रद्द कर दिया जाएगा. प्रकाशकों के लिए यह सुविधा हों जाएगी कि इम्पैनलमेंट के बाद उन्हें कुछ आर्थिक मदद मिलेगी जिससे वह अपने अखबार को और भी उच्चस्तरीय बना सकेंगे और ज्यादा से ज्यादा लोगो के बीच उसका प्रसार हों पाएगा. इतना ही नहीं डीएवीपी भी ऐसे सक्षम अखबार के माध्यम से अपना उद्देश्य पूरा कर पाएगी. पहन्तु डीएवीपी ऐसा करना नहीं चाहती क्योंकि उसका उद्देश्य सुधार नहीं बल्कि प्रकाशकों को परेशान करना हो गया है. 

लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन प्रकाशकों के हित में यह मुद्दा उठा रही है की डीएवीपी में आवेदन की हुई फाइल को पीएसी की बैठक में रखने से पूर्व सम्बंधित प्रकाशक से सभी दस्तावजो की पूर्ती क्यों नहीं कराइ जाती. जिस तरह पत्र सूचना कार्यालय द्वारा मान्यता देने से पूर्व क्वेरी भेज कर दस्तावेज पूरे कराये जाते हैं. उसी तरह डीएवीपी द्वारा भी क्वेरी मांगी जा सकती है. 

डीएवीपी की कार्यप्रणाली से लगता है की वह सुनियोजित तरीके से अखबारों को इम्पैनल्ड होने से रोक देना चाहती है. क्योंकि डीएवीपी में आवेदन के लिए और आवेदन के बाद जो प्रक्रिया अपनाई जाती है वो प्रकाशक को अगला आवेदन होने तक अँधेरे में रखती है. बाकायदा डीएवीपी अगले आवेदन मांगने तक पहले वाले आवेदन की प्रक्रिया को लटका कर रखती है जिससे प्रकाशक के पास दुबारा आवेदन करने के लिए समय ही नहीं बच पता. डीएवीपी पूरी फाइल रिजेक्ट कर देती है जिसके बाद प्रकाशक को पुन: आवेदन करने के लिए पूरी वही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है जिससे प्रकाशक का धन व समय दोनों बर्बाद होते हैं. जबकि फरवरी से मई के बीच या अगस्त से नवम्बर के बीच के समय में प्रकाशक से उन कमियों को पूरा करने के लिए कहा जा सकता है. 

डीएवीपी द्वारा अखबार को इम्पैनलमेंट से ज्यादातर पूअर प्रिंटिंग और कट पेस्ट के आधार पर रिजेक्ट किया जाता है. क्या डीएवीपी बताएगी की पैनल सलाहकार समिति किस आधार पर यह तय करती है की अखबार का कंटेंट कौपी पेस्ट है. गौरतलब है की समाचार पत्र/पत्रिकाएँ खबरों के लिए समाचार एजेंसियों पर आधारित होते हैं. कई स्थानीय समाचार एजेंसियां लघु एवं माध्यम समाचार पत्रों को खबरे देती हैं, ऐसे में अन्य अखबारों में समाचारों की समानता होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. प्रश्न यह है की जब समिति के सामने कट पेस्ट का मैटर आता है तब  प्रकाशक से इस विषय पर स्पष्टीकरण क्यों नहीं माँगा जाता. 

दूसरे यदि पूअर प्रिंटिंग की बात की जाए तो अखबारों से इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन मंगाने के 3 महीने बाद (फरवरी से मई- अगस्त से नवंबर तक) पीएसी की बैठक बुलाई जाती है. तब तक प्रकाशकों की कड़ी मेहनत से छपवाए गए अखबार डीएवीपी कार्यालय में पड़े रहते हैं, जो पीएसी की मीटिंग तक जाते जाते रिकोर्ड नहीं रद्दी बन जाते हैं. बड़ा सवाल यह है की आखिर पीएसी की मीटिंग में 4 महीने के अंतराल में क्या कार्य होता है. 

महत्पूर्ण यह भी है की जब तक कोई अखबार डीएवीपी में इम्पैनल्ड नहीं होता तब तक उस पर अपने नियम कानून चलाने का डीएवीपी को कोई अधिकार नहीं है. इमपैनल्ड होने के बाद से उस पर डीएवीपी से नियम कानून लागू जरूर होने चाहिए. क्योंकि सरकार का मकसद इन अखबारों के माध्यम से अपना प्रचार करना ही है अत: दुनिया भर के प्रमाणपत्र मांगने वाली डीएवीपी प्रकाशकों से यह अंडरटेकिंग क्यों नहीं लेती की यदि डीएवीपी इम्पैनलमेंट के बाद उसका अखबार डीएवीपी के मानदंडो पर खरा ना उतरे तो उसका इम्पैनलमेंट रद्द कर दिया जाए. लीड इंडिया पब्लिशेर्स एसोसिएशन का मानना है की इस तरह कार्यवाई पूरी करवाए बिना किसी अखबार के आवेदन को रद्द किए जाने की प्रक्रिया दोषपूर्ण है. 

लीड इंडिया पब्लिशेर्स एसोसिएशन लघु एवं माध्यम समाचार पत्रों के हित में यह मांग करती है की जब कोई अखबार डीएवीपी में इमपैनेल्मेंट के लिए आवेदन करे तो डीएवीपी पीएसी तक होने वाले अन्तराल में प्रकाशक से जरूरी दतावेज़ पूरे कराये. उसके बाद ही आवेदित अखबारों को पीएसी के समक्ष रखे.यदि ऐसा नहीं होता है तो आवेदन प्रक्रिया और पीएसी की बैठक के बीच इतना लम्बा समय रखने का औचित्य क्या है. 

लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन यह भी मांग करती है यदि कोई प्रकाशक समय रहते निर्धारित नियम पूरा करने में असमर्थ रहे तब उसकी फाइल को अगली पीएसी मीटिंग तक एक्सटेंड कर दी जाये. फाइल को डम्प करने की बजाये यदि प्रकाशक से उसके आगे की प्रक्रिया पूरी करने के लिए कहा जाये, तो न सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी बल्कि डीएवीपी और प्रकाशको का कीमती समय बर्बाद होने से भी बचेगा. . 

तीसरी बात डीएवीपी द्वारा अखबार मालिको से अखबार का नियमितता प्रमाणपत्र माँगा जाता है, जिसे डीपीआरओ द्वारा जारी किया जाता है. यह व्यवहारिक रूप से तार्किक नहीं है. अक्सर अख़बार के नियमित रूप से प्रकाशित होने के बाद भी डीपीआरओ द्वारा उसे नियमितता प्रमाणपत्र  देने में देरी की जाती है या परेशान किया जाता है. यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार का कारक बन रही है. यदि डीएवीपी अखबार की नियमितता के बारे में जानना चाहती है तो डीएवीपी द्वारा खुद अखबारों को अपने पास मंगवाने की व्यवस्था की जा सकती है. डीएवीपी यह व्यवस्था कर सकती है की इमपैनल्ड होने के इच्छुक सभी अखबार नियमित रूप से अपने अखबारों को डीएवीपी कार्यालय भेजें. इस तरह न सिर्फ अखबारों की नियमितता की जाँच आसानी से संभव होगी बल्कि इसे भ्रष्टाचार का विषय बनाने से भी रोका जा सकेगा. 

लघु एवं माध्यम समाचार पत्रों के हित में लिपा इन सब विषयों को डीएवीपी के समक्ष रखेगी ताकि इमपैनल्मेंट की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा सके. यदि डीएवीपी द्वारा इन बिन्दुओ पर विचार नहीं किया जाता है तो लीपा डीएवीपी को कानूनी नोटिस भेजेगी. प्रकाशकों के हित की इस लड़ाई को यदि कोर्ट में भी लड़ना पड़ा तो इसके लिए लिपा पूरी तरह तैयार है.