2011 के सेंसस के मुताबिक भारत की जनसंख्या 1.2 बिलियन है, और इतनी बड़ी जनसंख्या को समाचार देने के लिये 99660 समाचारपत्र काम कर रहे हैं। हमें गर्व है कि रीजनल मीडिया इस क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रहा है। यदि रीजनल मीडिया अपना काम बन्द कर दे तो देश की 70 प्रतिशत आबादी के पास उसकी खबरें पहुंचनी बन्द हो जायेंगी। लेकिन विडम्बना देखिये इतनी बड़ी जनसंख्या की सेवा करने वाला रीजनल मीडिया यानी क्षेत्रिय समाचारपत्र बदहाल है।
आज टाइम्स ऑफ इंडिया या हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे चन्द बड़े अखबार जो अपने 70-80 एडिशन भी निकाल रहें हो तब भी देश की पूरी आबादी तक समाचार नहीं पहुंचा सकते। लेकिन फिर भी वो सरकारी सहायता यानी डीएवीपी एड का 90% भाग ले रहें हैं और 7% आबादी तक समाचार पहुंचा रहें हैं। उधर उसके विपरीत देश की 90% आबादी तक उनकी भाषा में उनके समाचार पहुंचाने वाले क्षेत्रिय समाचारपत्र या लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों को इस सरकारी सहायता का मात्र 7 प्रतिशत विज्ञापन मिल रहा है और वो 90 प्रतिशत भारतवासियो को निर्बाध खबरें पहुंचा रहें हैं। सरकार ने लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों के हित का दिखावा करते हुए विज्ञापन नीति का निर्धारण किया हुआ जिसमें सबसे ज्यादा लाभ बड़े समाचारपत्रों को ही हो रहा है।
लगभग आधे से ज्यादा क्षेत्रिय सामाचारपत्रों को डीएवीपी द्वारा पूअर प्रिंटिंग कह कर रिजेक्ट किया जाता है। हम मानते हैं कि लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों का सर्कुलेशन कम है उनकी प्रिंटिग क्वालिटी पूअर है, लेकिन उनका कंटेंट पूअर नहीं है।
आज एक अखबार मालिक की हालत विकासशील देश के उस गरीब जैसी हो गयी है जो Vicious Circle of Poverty यानि गरीबी के दुष्चक्र का शिकार होता है। गरीब आखिर गरीब क्यों है, क्योंकि उसकी आय कम है, उसकी आय कम है तो उसकी बचत कम है, बचत कम तो उसकी आर्थिक निर्भरता अस्थिर है, उसकी आर्थिक निर्भरता अस्थिर है इसलिये वो गरीब है। गरीब इस चक्र से कभी नहीं निकल पाता। ठीक उसी तरह सरकारी आर्थिक नीति के अभाव में भारत का रीजनल मीडिया फंसा है। उसका सर्कुलेशन कम है इसलिये उसके पास विज्ञापन कम है, विज्ञापन कम है तो उसके अखबार का सर्कुलेशन कम है। गरीबी का दुष्चक्र!!
लेकिन क्षेत्रिय समाचारपत्रों को खुद की तंगहाली पर गर्व होना चाहिये क्योंकि वो तंगहाल हैं लेकिन पीत पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं या किसी पूंजीपति को लाभ देने के लिये गरीब के साथ अन्याय करने वाली खबरों को अपने अखबार में जगह नहीं दे रहे हैं। मुझे याद है भोपाल गैस त्रासदी पर मझोले अखबार लगातार कवरेज दे रहे थे लेकिन व्यवसायिक लालच के कारण सरकार पर पकड़ रखने वाले किसी बड़ॆ अखबार ने उस खबर को नहीं उठाया था। नतीजा दुनिया के सामने है।
लेकिन गर्व से ही संतोष नहीं किया जा सकता। भारत की सांस्कृतिक विविधता, उसकी समस्या, उसकी प्रमुखता उसके पर्यावरण को पोषित करने वाले क्षेत्रीय मीडिया को बचाने के लिये सरकार को आगे आना चाहिये। लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन ऐसी आर्थिक नीति पर कार्य कर रही है जिससे क्षेत्रीय समाचारपत्रों का संरक्षण हो सके। इस कार्य के लिये लीपा क्षेत्रीय समाचारपत्रों की समस्याओं के विषय पर पीएचडी के माध्यम से शोध कार्य कर रही हैं। लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन इस के माध्यम से क्षेत्रीय मीडिया के हित में ठोस आर्थिक नीति सरकार के समक्ष रखेगी।
लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन सरकार से स्पष्ट मांग रखेगी कि यदि वास्तविक भारत की सेवा करने वाले क्षेत्रीय समाचारपत्रों के प्रति जरा भी सम्मान है तो इनके संरक्षण के लिये स्पष्ट आर्थिक नीति होनी चाहिये। क्योंकि यदि इस क्षेत्र में मिशन समझ कर पत्रकारिता करने वाले अखबारों की आर्थिक सहायता नहीं की गई तो पीत पत्रकारिता और प्रायोजित खबरों को कोई नहीं रोक पाएगा। भारत का भाग्य अच्छा है कि इतनी आर्थिक दुर्दशा देखने के बाद भी अभी क्षेत्रीय मीडिया बिका नहीं है, मरा नहीं है।
लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन अपने शोध कार्य के माध्यम से क्षेत्रीय समाचारपत्रों के लिये नई विज्ञापन नीति की सिफारिश करेगी। सरकार नई विज्ञापन नीति लागू करे जिसमें लघु एवं मध्यम सामाचारपत्र कहलाने वाले अखबारों का नाम क्षेत्रीय समाचारपत्र किया जाये साथ ही डीएवीपी में उनकी सूचिबद्धता की प्रकिया आसान की जाये। जो अखबार अपने क्षेत्र की 80 प्रतिशत खबरों को प्रमुखता दे रहा हो उस अखबार को बिना रोक सूचिबद्ध किया जाये। सूचिबद्धता का आधार प्रिंट या स्मगी फोटो ना होकर उसका कंटेंट हो।
इसके अलावा लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन क्षेत्रीय समाचारपत्रों के लिये ‘डायरेक्ट मोनिटरी हेल्प’ की सिफारिश करेगी इसमें सरकार ‘डायरेक्ट मोनिटरी हेल्प’ के अंर्तगत विषेश ऋण व्यव्स्था का संचालन करे। जिस तरह किसानों के लिये ऋण हेतु विषेश पैकेज की व्यवस्था होती है उसी तरह अखबारों के लिये प्रिंटिंग प्रेस लगाने के लिये विषेश ऋण व्यवस्था हो। यह कितनी शर्मनाक स्थिति है कि लोकतंत्र की सेवा करने वाले पत्रकार को यदि बैंक से ऋण लेना हो तो उसे अपनी पहचान छुपानी पड़ती है। पत्रकारों को कोई बैंक लोन नहीं देता। लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशनसिफारिश करेगी कि ऐसे बैंकों की स्थापना हो जहां पत्रकार और अखबार मालिकों को सम्मान के साथ आर्थिक सहायता प्राप्त हो सके।
चीन में एक मशहूर कहावत है Voice of the People is the Voice of God और क्षेत्रीय समाचारपत्र जनता की आवाज हैं, यानि स्वयं ईश्वर की आवाज हैं। ईश्वर की इस आवाज के सरंक्षण के लिये लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन तत्परता से कार्य करती रहेगी।
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