भारत में वर्तमान में आरएनआई में पंजीकृत अखबारों की संख्या 31 मार्च 2015 के मुताबिक 99,660 है। नये साल में जरूर कुछ और अखबारों का इजाफा हो गया होगा। लेकिन अगर कोई इन अखबारों के नाम लेने बैठे तो गिने चुने 10-20 अखबारों के नाम बता सकता है।
ऐसे में बड़ा प्रश्न उठता है कि बाकी के करीब 90,000 अखबार कौन हैं, उन्हें कौन और क्यों चला रहा है।
उनके अस्तित्व का क्या फायदा है जब देश उनके नाम से भी परिचित नहीं तो उनके काम का मूल्यांकन या सराहना, उनकी सम्स्याओं का जिक्र कहां होता होगा।
फिर क्यों ये अखबार चल रहे हैं? दरअसल सच यह है कि बाकी बचे अखबारों में हम मान लेते हैं कि और 20-30 हजार अखबार केवल नाम के लिये चल रहे हैं, फिर भी करीब 60000 अखबार ऐसे हैं जो स्थानीय स्तर पर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जिन्हें सरकारी भाषा में“लघु एवं मध्यम” अखबार कहा जाता है।
“लघु एवं मध्यम” किस लिये कहा जाता है ये भी एक बड़ा प्रश्न है। शायद सरकार की सोच रही हो कि इस आधार पर इन समाचारपत्रों को सहायता करने के लिये नीतियां बनाई जाये, लेकिन वास्तव में “लघु एवं मध्यम” इन समाचारपत्रों के योगदान को छोटा करने वाला मानक बन गया। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान, जागरण का रिपोर्टर भी खुद को “लघु एवं मध्यम” समाचारपत्र प्रकाशकों से अधिक महत्वपूर्ण मानता है।
जबकि सत्य यह है कि वैश्वीकरण की इस आन्धी में स्थानीय समाचारपत्र ही हैं जो स्थानीय लोगों को स्थानीय भाषा में समाचार प्रदान करने का काम कर रहे हैं साथ ही वहां की विरासत और लोक कलाओं का संरक्षण भी कर रहे हैं। यही “लघु एवं मध्यम” समाचारपत्र हैं जो हमारी लोक कलाओं और परम्पराओं को जीवित रखे हुए हैं। अगर सोनपुर में एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला लगता है तो उसकी फुल कवरेज एक क्षेत्रीय अखबार जितना बेहतर करता है वो बड़ा अखबार नहीं करता। अगर झांसी में लोक महोत्सव होता है तो वहां लुप्त हो रही कला और आखिरी सांसे ले रहे लोक कलाकारों के साक्षात्कार बड़ा अखबार नहीं छापता। ये जिम्मेदारी क्षेत्रीय समाचार पत्र ही उठा रहें हैं।
समाज की सबसे निचली इकाई है व्यक्ति जो खुद में बहुत महत्वपूर्ण है। जब व्यक्ति मिलकर समूह बनाते हैं तब आन्दोलन होते हैं। लेकिन जब व्यक्ति को कोई समस्या होती है तो ये तथाकथित बड़े अखबार उसकी खबर को प्राथमिकता नहीं देते। टीआरपी और सर्कुलेशन की दौड़ में ये समस्याये कहीं नहीं ठहरती। बड़े अखबारों और टीवी चैनलों की खबरें नि:सन्देह सुविधा देख कर प्रकाशित या ब्रॉडकास्ट होती हैं।
लेकिन क्षेत्रीय समाचारपत्र लोगों से सीधे जुड़ा होता है। किसी मोहल्ले की नाली टूटने से स्थानीय लोग प्रभावित होते हैं जरूरी नहीं कि इस खबर को बड़े अखबार अपने पेज पर जगह दें। लेकिन क्षेत्री समाचारपत्र इस काम को पूरी शिद्दत से करते हैं।
मैंने चित्रकूट के एक अखबार में फ्रंट पेज का हैडिंग पढ़ा “लापरवाही से एक बैगा के मौत”। बैगा बुन्देलखंड प्रांत के आदिवासी समुदाय हैं जिनकी संख्या हजार से भी नीचे रह गयी है। इन्हे लुप्तप्राय जाति मानते हुए संरक्षण प्राप्त है। आप खुद ही अन्दाजा लगा सकते हैं कि इस खबर का कितना महत्व है लेकिन बड़े अखबार के लिये या दूसरे शहरों के लिये ये खबर पेज बर्बाद करना है। महानगर में तो बैगा का अर्थ समझना ही मुश्किल है।
इन सब उदाहरणों का मकसद केवल इतना बताना है कि क्षेत्रीय समाचारपत्र देश और समाज में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, और इनका क्या महत्व है। लेकिन फिर भी इनके अस्तित्व पर हमेशा आर्थिक संकट मडराता रहता है। इतना बड़ा काम करने वाले क्षेत्रीय समाचारपत्र सम्मान के भागी भी नहीं हैं।
क्षेत्रीय समाचारपत्र का महत्व समझने के लिये ये एक वास्तु स्थिति थी, अब प्रश्न है कि क्या क्षेत्रीय समाचारपत्रों की दयनीय स्थिति के लिये केवल सरकार या उद्योग जगत ही दोषी हैं। नहीं यह पूरा सत्य नहीं है।
इस स्थिति के लिये लोग और खुद क्षेत्रीय समाचारपत्र प्रकाशक भी जिम्मेदार हैं। क्षेत्रीय समाचारपत्र प्रकाशक खुद अपने योगदान और भूमिका को नहीं समझ रहें हैं। जीवन में प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति की एक खास उपयोगिता होती है। उसे पहचानना और बनाये रखना निहायत महत्वपूर्ण होता है। क्या वजह है कि करोड़ो खर्च करके बड़े फिल्म स्टारों के साथ बने फ्रिज के विज्ञापन घड़े के महत्व को कम नहीं कर सके। आपने घड़े का कहीं विज्ञापन नहीं देखा होगा लेकिन गर्मी आते ही घड़े की तलाश जरूर शुरू हो जाती है। क्योंकि घड़े ने अपनी उपयोगिता को बनाये रखा है।
लेकिन क्षेत्रीय समाचारपत्र प्रकाशक अपनी उपयोगिता को भूल कर बड़े अखबारों की तर्ज पर खबर करने लगें हैं। कबड्डी या क्रिकेट के स्थानीय मैच के स्थान पर वो भी अपने खेल पेज को आईपीएल की खबरों से पाट देते हैं, या फिर मार्टिना हिंग्स, रोजर फ्रेडर की खबरों को प्रमुखता देते हैं। इसी तरह मनोरंजन में केवल बॉलीवुड की हस्तियों और उनसे जुड़ी गॉसिप को जगह देते हैं। जरा सोचिये क्या साधारण प्रिंटिंग में छपने वाले समाचापत्र इन बड़े अखबारों की हाईटेक वेब मशीनों पर छपे अखबार का मुकाबला कर सकते है। ऐसे में अपनी उपयोगिता बनाये रखने के लिये स्थानीय और राष्ट्रीय खबरों का सही संतुलन बनाना जरूरी है। स्थानीय खिलाड़ी, स्थानीय कलाकार टीवी पर चमकने वाले सितारे नहीं, ये हमारे बीच ही रहते हैं। इनको महत्व देना स्थानीय समाचारपत्रो का दायित्व है।
इसी तरह क्षेत्रीय समाचार पत्रों के प्रति समाज की भी जिम्मेदारी बनती है। जब कभी किसी स्कूल या ड्रामा फेस्ट की खबर क्षेत्रीय अखबार में छपती है तो हम उस अखबार को ढूंढने के लिये पूरा जोर लगा देते है और उसे सम्भाल कर भी रखते हैं। फिर क्यों उसे प्रतिदिन नहीं पढ़ सकते। पाठको का नैतिक दायित्व बनता है कि अगर वो स्टेटस सिम्बल के लिये टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडिया टुडे, द वीक खरीद कर पढ़ सकते हैं तो अपनी बात करने वाले स्थानीय अखबार को भी खरीद कर पढ़ें। इससे उस अखबार को आर्थिक सुरक्षा तो मिलेगी ही इसके साथ स्थानीय खबरों को प्रमुखता देने का हौसला भी मिलेगा।
अब बात करें सरकार की। क्षेत्रीय समाचारपत्रों की आर्थिक सुरक्षा और उनके संरक्षण की जिम्मेदारी सबसे अधिक सरकार की है। बीमार मिलों को चलाने के लिये स्कीम, किसानों के कर्जे माफी के लिये स्कीम बनाने वाली सरकार क्यों नहीं ऐसी तत्पर नीति का निर्माण करती है जिसमें दम तोड़ रहे क्षेत्रीय समाचार पत्रों को सम्बल मिले। सरकार को भारत में विदेशी मीडिया के निवेश की भी सही व्याख्या करनी होगी।
एक बात तो सबको याद रखनी होगी अगर स्थानीयता, निजता और अपने देश की मिट्टी की सौन्धी महक को महसूस करना है तो स्थानीय अखबारों को बचाना होगा। नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब सोमालिया, इंडोनेशिया जैसे देशों में हावी होने वाला रूपर्ट मर्डोक जैसा विदेशी मीडिया हमारे बड़े मीडिया के साथ मिलकर हमारी स्थानीयता को भी निगल लेगा। सरकार यदि अपने दायित्व को निभाते हुए क्षेत्रीय मीडिया के संरक्षण के लिये ठोस कदम नहीं उठाती है तो लोकतंत्र निर्भीक, निष्पक्ष खबरों के लिये तरस जाएगा और विश्व में फ्री प्रेस के लिये जाने जाना वाला भारतीय मीडिया अपनी पहचान खो देगा।
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