पिछले कई दिनों से खबरों और उसकी उपयोगिता से मोह भंग होता जा रहा है। रात नौ बजे मंडे टू फ्राइडे प्राईम टाईम में खबरों की मंडी लगती है जहाँ अलग अलग एंकर अपनी शैली में ख़बरों को परोसते है। कोई राजू के ठहाके को बेच रहा है तो कोई नितीश के तेवर को बेच रहा है तो किसी ने मोदी को अपना सेल पॉइंट बना लिया है।
फटाफट खबरों ने और इंटरनेट के मायाजाल ने अपनी पकड़ ऐसी बना ली है कि अगले दिन छपने वाले अखबारों की खबरें बासी और बेजान लगती है।
अगर ‘द हिंदू’ जैसा अखबार विकिलीक्स के हवाले से कोई खबर ब्रेक करे तो न्यूज चैनल उसे अपना विशेष एपिसोड बना लेते है और एक लाईन को बार-बार दुहराकर दो घंटे के प्रोग्राम में उसे तब्दील कर देते है।
सवाल यह है कि क्या 1 अरब से ज्यादा की आबादी में चंद लोग ही है जो अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियाँ बन सकते है। क्या इस देश में आम आदमी से जुडी कोई घटना नहीं या कोई खबर नहीं जिसे अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियाँ बनाई जा सके उस पर बहस की जा सके। चार–चार बार दुहराकर दिखाई जाने वाली क्राईम की खबरें या 100 मिनट में 100 खबरों को दिखाकर आखिर आम आदमी से जुड़े किस सरोकार को पूरा किया जाता है।
कुछ समय पहले एनडीटीवी पर ‘रवीश की रिपोर्ट’ के नाम से एक प्रोग्राम आया करता था। जिसमे रिक्शे वालों की कहानी से लेकर दिल्ली से सटे खोडा गावं में फैली अव्यवस्था को दिखाया गया था। बाद में एनडीटीवी पर ही खबर चलाई गयी थी कि प्रोग्राम दिखाए जाने के बाद सरकार ने खोडा गाँव के विकास के लिए कई योजनाओं को शुरू करने की घोषणा की है। मुझे समझ नहीं आया आम आदमी से जुड़े इस प्रोग्राम को क्यूँ बंद कर दिया गया। लेकिन अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ ऐसे प्रोग्राम तब ही बंद किये जाते है जब सरकार ऐसी अव्यवस्थाओं के उजागर होने से डरती हो और चैनल पर दबाव बानाकर ऐसे प्रोग्राम को बंद करा दे। या दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि चैनल के पास इतने संसाधन ना हों या इस प्रोग्राम के लिए इतने विज्ञापन ना हों कि चैनल को मजबूरन ऐसे प्रोग्राम को बंद करना पड़े।
असल मायने में बाजार और सरकार दोनों ही समझते है न्यूज चैनल और अखबारों के पास आय का साधन केवल विज्ञापन है, अगर विज्ञापन पर नकेल कस दी जाए तो अखबारों और न्यूज चैनलों के ख़बरों को अपने अनुकूल किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में आम आदमी के लिए जगह कहाँ है। मीडिया मजबूर है, खबरे वहीं दिखाता है जिससे बाज़ार और सरकार प्रभावित ना होते हों, अपराध की ख़बरों को चार-चार बार दोहराना या 100 मिनट में 100 ख़बरें दिखाना, यह सब बाज़ार के अनुकूल है लेकिन ‘रवीश की रिपोर्ट’ जैसे प्रोग्राम इसलिए बंद हो जाते है क्यूंकि वह बाज़ार और सरकार पर आघात करते है। आज भी अन्याय और अनीति के ख़िलाफ़ विद्रोह का शंखनाद फूंकने वाले तो हैं लेकिन अब शंख पर बाज़ार का कब्जा है।
अगर हम इतिहास की तरफ देखें तो सन 1780 में जब बंगाल गजट जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ था तो उसका मकसद भी अंग्रेजी हुकूमत और भारतीय जन मानस के बीच बढ़ती खाई को पाटना ही था। सन 1927 में रेडियो और आज़ादी के बाद सन 1959 में भारत में टेलीविज़न प्रसारण के शुभारंभ का मक़सद भी बहुत हद तक समाजसेवा ही था। किसानों को खेती से जुड़ी जानकारियां देना, ताकि कृषि के क्षेत्र में क्रांति आ सके, शिक्षा के प्रति लोगों को जागरुक करना, रोज़ी-रोजगार के बारे में सूचना देना, सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार और इनके खिलाफ जनमत तैयार करना आदि।
लेकिन 90 के दशक तक तमाम उठापटक के बावजूद भी मीडिया समाजसेवी मीडिया बना रहा। लेकिन उदारीकरण की आंधी ने मीडिया के समाजसेवी होने का दंभ तोड़ा तो मीडियाकर्मियों के सम्मान का कीर्ति-स्तम्भ भी डवांडोल हुआ। अब मीडिया के बड़े पदों पर ऐसे लोग आने लगे जिनका सरोकार जनसेवा से कम और बाज़ार से ज्यादा था। और 2013 आते-आते मीडिया का स्वरूप इतना बदल गया या यूँ कहें की मीडिया बाज़ार के चंगुल में इतना जकड़ गया कि आम आदमी तक उसकी पहुँच बेहद सीमित हो गयी।
हालाँकि मै मानता हूँ इस समस्या का समाधान केवल मीडिया नहीं कर सकता। आज-कल टीआरपी की बहुत चर्चा होती है, टीआरपी का अर्थ होता है, जनता की राय। हालाँकि टीआरपी में शामिल लोगों की संख्या बेहद कम है फिर भी यह लोगों के विचारों को दर्शाता है। आम दर्शकों को भी चाहिए ऐसे प्रोग्राम को जरुर प्रोत्साहित करें जो जनसरोकारों से जुडा हुआ हो। जब एक रिपोर्टर या संपादक जनसरोकार से जुडी ख़बरें लाता है तो उसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अगर आम दर्शक उस खबर को नकार दे तो यक़ीनन मीडिया बाध्य होता है ऐसी ख़बरों को लाने के लिए जो बाज़ार के अनुकूल हों।
असल मायने में न्यूज चैनल के आने के बाद से ही मीडिया के अंदर एक जबरदस्त अफरातफरी है। 90 के दशक से पहले प्रिंट मीडिया के सामने कोई चुनौती नहीं थी वह स्थिर था और जनसरोकारों से जुडा हुआ था। परन्तु 90 के दशक के बाद जब 24 घंटे वाले न्यूज चैनल आए तो उन्होंने समाचारों की परिभाषा ही बदल दी। जान सरोकारों की राह पर चलने वाला मीडिया फ़िल्मी हो गया। जाना सरोकार और फ़िल्मी मीडिया के बीच फंसी पत्रकारिता यह तय नहीं कर पा रही है कि आखिर बाज़ार, सरकार और मीडिया के विभिन्न माध्यमों के बीच सामंजस्य कैसे बैठाया जाय।
इसी असमंजस की स्थिति में प्रिंट और टीवी मीडिया लगातार एक तरह की ही खबरें करते है जिनका विशेषकर राष्ट्रीय महत्त्व होता है। हालाँकि विविधताओं से भरे इस देश के लिए यह जरूरी है प्रिंट और टीवी मीडिया को स्थानीय खबरों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करे। ऐसी ख़बरें जो जनरुचिकर हों, आम आदमी से जुड़ी हों, लोगो के विकास और उनकी समस्याओं की बात करती हों को प्रमुखता दे। हर मीडिया संस्थान की कामयाबी इस बात पर निर्भर करती है कि आम लोगों का जुडाव उस संस्थान से कितना है। और यह जुड़ाव आम आदमी तभी महसूस करेगा जब खबर में उसकी भागीदारी हो और वह खबर उसे प्रभावित करती हों।
मीडिया में व्यापक बदलाव के लिए यह भी जरुरी है कि विज्ञापन के माध्यम से सरकार लोगों की आवाज को न दबा सके। सरकार की एक नोडल एजेंसी है डीएवीपी, जिसके माध्यम से टीवी, प्रिंट और वेब मीडिया को सरकार विज्ञापन देती है। डीएवीपी की विज्ञापन नीति में साफ़ उल्लेख है कि सरकार मीडिया को आर्थिक मदद नहीं करेगी बल्कि अपनी नीतियों के प्रचार-प्रसार के लिए मीडिया का उपयोग करेगी। अब आप अंदाजा लगाएं अगर मीडिया सरकार में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ ख़बरें चलाएगा या सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लोगों की आवाज़ उठायेगा तो क्या सरकार मीडिया को विज्ञापन देगी? यही स्थिति बाज़ार के सन्दर्भ में भी है, बाज़ार भी अपने खिलाफ लोगों की आवाजों को नहीं सुन सकता। ऐसी स्थिति में एक जनसरोकारी सरकार ही ऐसा कानून बना सकती है जिसके तहत मीडिया को विज्ञापन मिलने में रूकावट ना हो, मीडिया की ज्यादा से ज्यादा निर्भरता सब्सक्रिप्शन पर हो, मीडिया के अंदर कॉमपिटेंट लोग आये।
भारत एक बहुत बड़ा लोकतान्त्रिक देश है, और यह देश चार आधारस्तंभों पर टिका हुआ है जिसमे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के अलावा मीडिया एक बेहद मजबूत आधारस्तंभ है। यदि कोई भी आधारस्तंभ कमजोर होगा तो यह देश के लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक स्थिति होगी। मीडिया को भी चाहिए वह सरकार और बाज़ार के कुचक्र के बीच फँस कर हास्यास्पद और बेचारा ना बन जाये। हालाँकि भारत में मीडिया अपने शुरूआती दौर से लेकर अब तक कई युग, कई रंग और कई रूप ग्रहण कर, छोड़ चुका है। गति को अभी विराम नहीं लगा है। इतिहास के आलोक में उम्मीद है कि एक बार फिर वह जूनुनी मीडिया लौटेगा जो बाज़ार और सरकार के कुचक्र में फंसे बगैर आम आदमी के लिए शंखनाद करेगा।…
लेखक सुभाष सिंह लीड इंडिया ग्रुप के मुख्य संपादक व चेयरमैन है और रीजनल अख़बारों के हित में कार्य करने वाली देश की सबसे बड़ी संस्था ‘लीड इंडिया पब्लिशर्स एसोसिएशन’(लीपा) के अध्यक्ष है। इनसे chairman@leadindiagroup.com पर संपर्क कर सकते है।
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