प्रकाशकों को परेशान करने का जिम्मा अगर किसी विभाग ने उठाया है तो वो डीएवीपी है। अगर आप डीएवीपी में अगस्त में इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन देने के लिए सोच रहे हैं तो एक बार डीएवीपी इम्पैनलमेंट फ़ॉर्म में जोड़े गए बरगलाने वाले एक कॉलम को देखिए।.
अगस्त 2011 में डीएवीपी इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन करने के लिए प्रकाशकों से एक नए प्रमाण पत्र की मांग की गई है। वो प्रमाण पत्र है ‘आईएनएस’ (गैर सरकारी
संगठन) का सदस्यता प्रमाणपत्र। यानी अब प्रकाशकों में डीएवीपी द्वारा यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन करने के लिए आरएनआई सर्टीफिकेट या रेग्युलेरिटी सर्टीफिकेट की तरह ‘आईएनएस’ का सदस्यता प्रमाणपत्र लगाना होगा।
एक और विशेषता है कि जब आप आवेदन के लिए फॉर्म ओपेन करेंगे तो आखिरी के दो कॉलम ऑटोमेटिक सेलेक्ट मिलेंगे। जिसमें एक आईएनएस की सदस्यता वाला है दूसरा प्रेस कॉउंसिल ऑफ इंडिया में जमा कराई गई लेवी के रसीद का है। इस तरह ऑटोमेटिक सेलेक्शन से यह भ्रम और पुख्ता हो जाता है कि ये कॉलम फुलफिल करने अनिवार्य हैं। यहां ये जोड़ना अनिवार्य है कि प्रेस परिषद में दिया जाने वाला शुल्क देना संवैधानिक है। लेकिन किसी संस्था का सदस्य बनने के लिए बाध्य करना निहायत गलत और असंवैधानिक है।
हालांकि फॉर्म में दिए गए सेलेक्शन को हटा सकते हैं लेकिन डीएवीपी पूरी शिद्दत से प्रकाशकों के साथ खिलवाड़ करने में लगा है। वो हर ऐसी तरकीब ढूंढता है जिससे लघु एवं मध्यम प्रकाशक हताश होकर डीएवीपी में आवेदन की प्रक्रिया पूरी न कर सकें, जिसके बाद वो अपनी मॉनोपोली चला सकें।
डीएवीपी द्वारा फैलाए जा रहे इस सुनियोजित भ्रम से प्रकाशक परेशान हैं। इस भ्रम फैलाने के पीछे का मकसद लीपा के माध्यम से उठ रही लघु एवं मध्यम प्रकाशकों की आवाज को कुचलना है। डीएवीपी में प्रकाशकों से साथ होने वाले दुर्व्यवहार से देश भर के प्रकाशक परिचित हैं, उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन डीएवीपी की इस हरकत से कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे है जैसे:
1. किसी भी प्रकाशक को किसी एनजीओ का सदस्य बनने के लिए बाध्य कैसे किया जा सकता है?
2. अगर डीएवीपी इम्पैनलमेंट के लिए आईएनएस की सदस्यता अनिवार्य नहीं है तो उस कॉलम को इम्पैनलमेंट फॉर्म में क्य़ों रखा गया है?
3. क्या डीएवीपी आईएनएस को प्रमोट करने का असंवैधानिक काम कर रही है?
4. क्या डीएवीपी और आईएनएस एक साथ मिलकर लघु समाचार पत्रों को कुचल देना चाहते हैं?
5. क़्या डीएवीपी ने यह कॉलम इसलिए लगाया है ताकि प्रकाशक भ्रमित हों और इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन ना करें?
इससे पूर्व भी डीएवीपी ऐसी ही अनियमितताओं का प्रमाण दे चुका है लेकिन अब डीएवीपी की मनमानी और प्रकाशकों के हित के बीच लीपा खड़ा है। डीएवीपी में फैली अनियमितता का एक और प्रमाण 28 जुलाई को मिला, जब फरवरी 2011 में इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन किए गए अखबारों पर विचार करने के लिए पीएसी की बैठक जारी थी तब एक प्रकाशक ने लीपा में शिकायत दर्ज कराई। उन्होंने बताया कि उनके अखबार का स्टेटस डीएवीपी की ऑफिशियल वेबसाइट पर ‘नॉट एप्रूव्ड’ दिखाया जा रहा है। जो कि उनके अखबार ‘आठवां आश्चर्य’ के साथ नाइंसाफी है। क्योंकि जब तक ‘आठवा अश्चर्य’ पीएसी की प्रकिर्या से नहीं गुजरा तब वह ‘नॉट एप्रूव्ड’ कैसे हो गया। इस पर लीपा ने जब डीएवीपी से सवाल किया तो डीएवीपी ने प्रकाशकों झूठा सिद्ध करने की कोशिश की।
लीपा की कड़ी आपत्ती के बाद ‘आठवां आश्चर्य’ का स्टेटस डीएवीपी की वेबसाइट से हटा लिया गया। लेकिन ऐसे ही कई और प्रकाशक भी थे जिनके अखबार का स्टेटस ‘नॉट एप्रूव्ड’ दिखाया जा रहा था। अपना बचाव करने के लिए अब डीएवीपी ने उस ‘सबमिट’ बटन को फ्रीज़ कर दिया जहां जाकर प्रकाशक अपने अखबार का स्टेटस चेक करते हैं। डीएवीपी की इस हरकत से भ्रष्टाचार की बू आ रही है। ऐसे में यहां यह भी सवाल उठते हैं कि:
1. पीएसी मीटिंग से पहले कोई अखबार कैसे ‘नॉट एप्रूव्ड’ हो सकता है?
2. जब तक पीएसी मीटिंग नहीं हुई उससे पहले ही किसी अखबार के ‘नॉट एप्रूव्ड’ होने का कारण कैसे बताया जा सकता है?
3. क्या डीएवीपी के कुछ अधिकारी पीएसी मीटिंग से पहले ही यह तय कर लेते हैं कि किन अखबारों का इम्पैनलमेंट करना है और किन अखबारों का नहीं?
4. डीएवीपी के अधिकारी दम्भ भरते हैं कि उनके यहां कोई अनियमितता नहीं होती। क्या इतने प्रमाणों और शिकायतों के बाद डीएवीपी कोई कार्रवाई करेगी?
इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि डीएवीपी प्रकाशकों के सामने अप्रत्यक्ष रूप से ऐसी शर्तें रख रही है, जिससे प्रकाशक लीपा के पास डीएवीपी के खिलाफ अपनी कोई शिकायत दर्ज ना करा सकें।
अब यह प्रकाशकों के हाथ है कि वो निडर और निष्पक्ष बनना स्वीकार करते है और डीएवीपी के द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम में ना फंस कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, या खामोश हो जाते हैं, क्योंकि ये एक नागरिक का मूल अधिकार है कि वो अपनी इच्छा से किसी भी धर्म, व्यवसाय, निवास स्थान का चुनाव करे। ये उस पर निर्भर है वो किस पार्टी को वोट दे या किस संस्था का सदस्य बने। किसी भी संस्था का सदस्य बनने के लिए प्रकाशकों को मजबूर करना या भ्रम फैलाना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है।
सच्चाई यह है कि लीपा की बढ़ती अद्वितीय प्रसिद्धी से घबराकर डीएवीपी लीपा को दबाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। लीपा को भी पता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग आसान नहीं होती। चाहे वो लड़ाई सरकार के खिलाफ हो या सरकारी एजेंसी के खिलाफ। सत्य की इस लड़ाई में लीपा आखिरी तक पीछे नहीं हटेगा।
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